Hindi Literature
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CHANDER


कल्पना जिनकी यत्नहीन रही
उनके पैरों तले ज़मीन रही

मैं भी उसके लिए मशीन रहा
वो भी मेरे लिए मशीन रही

बन के ‘छत्तीस’ एक घर में रहे
मैं रहा ‘छ:’ वो बन के ‘तीन’ रही

हर कहीं छिद्र देखने के लिए
उनके हाथों में खुर्दबीन रही !

पूरी बाहों की सब कमीजों में
साँप बनकर ही आस्तीन रही

तन से उजली थी रूप की चादर
किंतु मन से बहुत मलीन रही

आदमी हर जगह पुराना था
ज़िन्दगी हर जगह नवीन रही.

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