Hindi Literature
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इस भाँति पाई वीरगति सौभद्र ने संग्राम में,
होने लगे उत्सव निहत भी शत्रुओं के धाम में |
पर शोक पाण्डव-पक्ष में सर्वत्र ऐसा छा गया,
मानो अचानक सुखद जीवन-सार सर्व बिला गया ||
प्रिय-मृत्यु का अप्रिय महा-संवाद पाकर विष-भरा,
चित्रस्थ-सी निर्जीव मानो रह गई हट उत्तरा!
संज्ञा-रहित तत्काल ही फिर वह धरा पर गिर पड़ी,
उस काल मूर्च्छा भी अहो! हितकर हुई उसको बड़ी ||
कुछ देर तक दुर्दैव ने रहने न दी यह भी दशा,
झट दासियों से की गयी जागृत वहाँ वह परवशा |
तब तपन नामक नरक से भी यातना पाकर कड़ी,
विक्षिप्त-सी तत्क्षण शिविर से निकल कर वह चल पड़ी ||
अपने जनों द्वारा उठाकर समर से लाये हुए,
व्रण-पूर्ण निष्प्रभ और शोणित-पंक से छाये हुए,
प्राणेणा-शव के निकट जाकर चरम दुःख सहती हुई,
वह नव-वधु फिर गिर पड़ी "हा नाथ! हा" कहती हुई ||
इसके अनंतर अंक में रखे हुए सुस्नेह से,
शोभित हुई इस भाँति वह निर्जीव पति के देह से -
मनो निदाधारम्भ में संतप्त आतप जाल से,
छादित हुई विपिनस्थली नव-पतित किंशुक-शाल से |

फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई,
कुररी-सदृश सकरुण गिरा से दैन्य दरसाती हुई,
बहु-विध विलाप-प्रलाप वह करने लगी उस शोक में,
निज प्रिया वियोग समान दुःख होता न कोई लोक में ||
"मति, गति, सुकृति, धृतिपूज्य, पति, प्रिय, स्वजन, शोभन, संपदा,
हा! एक ही जो विश्व में सर्वस्व था तेरा सदा |
यों नष्ट उसको देखकर भी बन रहा तू भार है!
हे कष्टमय जीवन! तुझे धिक्कार बारम्बार है ||
था जो तुम्हारसब सुखों का सार इस संसार में,
वह गत हुआ है अब यहाँ से श्रेष्ठ स्वर्गागार में |
हे प्राण! फिर अब किसलिए ठहरे हुए हो तुम अहो!
सुख छोड़ रहना चाहता है कौन जन दुःख में कहो?
अपराध सौ-सौ सर्वदा जिसके क्षमा करते रहे,
हँसकर सदा सस्नेह जिनके ह्रदय को हरते रहे,
हा! आज उस-मुझ किंकरी को कौन से अपराध में -
हे नाथ! तजते हो यहाँ तुम शोक-सिन्धु अगाध में |
तज दो भले ही तुम मुझे, मैं तज नहीं सकती तुम्हें,
वह थल कहाँ पर है जहाँ मैं भज नहीं सकती तुम्हें?
है विदित मुझको वह्नि-पथ त्रैलोक्य में तुम हो कहीं,
हम नारियों की पति बिना गति दूसरी होती नहीं ||
जो 'सहचरी' का पद तुमने दया कर था दिया,
वह था तुम्हारा इसलिए प्राणेश! तुमने ले लिया,
पर जो तुम्हारी 'अनुचरी' का पुण्य-पद मुझको मिला,
है दूर हरना तो उसे सकता नहीं कोई हिला |

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