Hindi Literature
Advertisement
http://www.kavitakosh.orgKkmsgchng
































CHANDER

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर ॥1॥

भावार्थ - मेरे साईं, मुझमें मेरा तो कुछ भी नहीं,जो कुछ भी है, वह सब तेरा ही । तब, तेरी ही वस्तु तुझे सौंपते मेरा क्या लगता है, क्या आपत्ति हो सकती है मुझे ?

`कबीर' रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ ॥2॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं -आँखों में काजल कैसे लगाया जाय, जबकि उनमें सिन्दूर की जैसी रेख उभर आयी है ?मेरा रमैया नैनों में रम गया है, उनमें अब किसी और को बसा लेने की ठौर नहीं रही। [सिन्दूर की रेख से आशय है विरह-वेदना से रोते-रोते आँखें लाल हो गयी हैं।]

`कबीर' एक न जाण्यां, तो बहु जांण्या क्या होइ ।
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥3॥


भावार्थ - कबीर कहते हैं - यदि उस एक को न जाना, तो इन बहुतों को जानने से क्या हुआ ! क्योंकि एक का ही तो यह सारा पसारा है, अनेक से एक थोड़े ही बना है ।


जबलग भगति सकामता, तबलग निर्फल सेव ।
कहै `कबीर' वै क्यूं मिलैं, निहकामी निज देव ॥4॥

भावार्थ -भक्ति जबतक सकाम है, भगवान की सारी सेवा तबतक निष्फल ही है । निष्कामी देव से सकामी साधक की भेंट कैसे हो सकती है ?

`कबीर' कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत ।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत ॥5॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - कलियुग में आकर हमने बहुतों को मित्र बना लिया, क्योंकि (नकली) मित्रों की कोई कमी नहीं । पर जिन्होंने अपने दिल को एक से ही बाँध लिया, वे ही निश्चिन्त सुख की नींद सो सकते हैं ।

`कबीर' कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी, जित कैंचे तित जाउं ॥6॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं--मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया (मोती) है गले में राम की जंजीर पड़ी हुई है; उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। [प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है ।]

पतिबरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप ।
पतिबरता के रूप पर, बारौं कोटि स्वरूप ॥7॥

भावार्थ - पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली-फटी साड़ी पहने हुए और कुरूप । तो भी उसके रूप पर मैं करोंड़ों सुन्दरियों को न्यौछावर कर देता हूँ ।

पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै , ज्यों रवि ससि की जोत ॥8॥

भावार्थ - पतिव्रता मैली ही अच्छी, जिसने सुहाग के नाम पर काँच के कुछ गुरिये पहन रखे हैं । फिर भी अपनी सखी-सहेलियों के बीच वह ऐसी दिप रही है, जैसे आकाश में सूर्य और चन्द्र की ज्योति जगमगा रही हो ।

Advertisement