मुक्तक[]
(१)
भोग की चाह में भगवान को बदनाम न कर,
अपने इंसान को शैतान का गुलाम न कर .
बुद्ध के देश की मिट्टी से देह है बनी ,
रूप की रात में मुसकान को नीलम कर.
(२)
दीन के रक्त से जिनके चिराग जलते हैं,
और फिर चीटियाँ चुगाने को निकलते हैं.
उनके धर्मात्मापने पर रहम आता है ,
स्याहियां पीते और सोखता निगलते हैं.
(३)
ठसक की चालें राह को नहीं जगा सकतीं ,
धरा के घाव में मरहम नहीं लगा सकतीं .
तुम्हारी ठोकरें यह धूल उड़ा सकती हैं ,
किसी के खेत में फसलें नहीं उगा सकतीं .
(४)
सर्प सी फुफकार लेकर आप आये हैं ,
दीप के निर्वाण का संदेश लाये हैं .
पर बुझाने से प्रथम यह तो कहो अब तक,
आपने कितने बुझे दीपक जलाये हैं .
(५)
समय- समय को देखकर राग गाये जाते हैं,
करुण के बाद तरुण स्वर बजाये जाते हैं.
पाखरे जाते कभी आसुओं से माँ के चरण,
कभी लहु की नदी में धुलाये जाते हैं .
(६)
कला के पृष्ट- भूमि की अमर कहानी हूँ,
अतीत- काल की निखरी हुई निशानी हूँ .
अदव से पेश आओ वर्तमान के पुतले ,
कि आज तेरे लिये मैं भविष्यवाणी हूँ .
(७)
चाँद का फीका फरेरा हो रहा,
शुक्र का सुनसान डेरा हो रहा.
रात छोटी चार का घंटा बजा ,
जान पड़ता है सवेरा हो गया.
(८)
जिन्दगी का क्या ठिकाना कि जी सके कि न जी सके,
होश की चादर फटी फिर सी सके कि न सी सकें.
चाह पीने की अगर है तो पियो पर शर्त है,
तुम पियो मदिरा मगर मदिरा तुमको न पी सके.
(९)
गीत गाने से प्रथम मुक्तक पढूँगा,
राग गाने से प्रथम सप्तक पढूँगा .
आप जो चाहें मुझे समझें मगर मैं,
इम्तहां से पेश्तर पुस्तक पढूँगा
(१०)
देश में जो खान लोहे की निकलती है,
दो तरह का वह यहाँ लोहा उगलती है.
एक की खुरपी निराती गोड़ती खेती ,
एक की रण क्षेत्र में तलवार चलती .
(११)
आज तक सौन्दर्य के तो पाँव टिक पाये नहीं,
टिक सके होंगे कहीं, पर द्रष्टि में आये नहीं.
अब बहार आयेगी तो उससे ये पूछेंगे जरुर,
फूल ऐसा है कोई जो खिल के मुरझाये नहीं .
(१२)
जब कि एक ही शाख एक ही घर एक ही घराना,
मलय- पवन ने दुलारने में कोई भेद न माना .
फिर भी एक भाव के अनमिल दो प्रभाव ये कैसे,
फूलों न मुसकाना सीखा, काँटों न चुभ जाना .
(१३)
क्यों ऊषा की लालिमा इतनी निराली है,
क्योंकि उसकी रात की पोशाक काली है.
सौत - जैसा डाह आपस में लिये फिर भी,
मौत ने ही जिन्दगी में फिर जान डाली है.
(१४)
लिये शक्ति का दीप जाते किधर हो ,
अरे यह अकेला तुम्हारा नहीं है .
दिया मान भी लें तुम्हारा अगर तो,
दिये का उजाला तुम्हारा नहीं है.
(१५)
मानता हूँ नीड़ खग का एक सीमित वास है,
और मुट्ठी भर परों में प्राण का इतिहास है.
किन्तु तुम इसकी उड़ाने व्यर्थ में मत छोड़ना,
मनचले की बाजुओं में ही छिपा आकाश है.
(१६)
शोक होता ही नहीं मुझे किसी के शाप से,
किन्तु लगती आग अंतर में उसी क्षण ताप से.
जब कि साढ़े तीन हाँथो की रची इस देह को,
नापता सिक्का किसी का एक इंची नाप से.
(१७)
मानता हूँ दूर तीर्थों में गये तुम सर्वथा,
मन लगाकर भी सुनी भगवान की पूरी कथा.
किन्तु उससे भी अधिक फल पा गये होते अगर,
ध्यान से तुमने पड़ोसी की सुनी होती व्यथा.
(१८)
यत्न कण करता रहा पाषण होने के लिये,
लालसा पाषण की भगवान होने के लिये.
कण तथा पाषण के तो लक्ष्य ये ही थे,
चाह थी भगवान की इन्सान होने के लिये..
(१९)
तर हुई हैं बतियों ले आसुओं की बेकली,
जाता रही हैं दग्ध ह्रदयों को समेटी खलबली.
सावधान ! बचो- बचो इस आग के त्योहार से,
इन दियों से तुम मना सकते नहीं दीपावली.
(२०)
तुम पूछते हो मुझसे मैं किसको खोजता हूँ,
मैं खोजता उसको जिसको कि खो चुका हूँ.
फिर पूछने लगे तुम मैं किसको खो चुका हूँ,
मैं खो चुका हूँ उसको जिसका हो चुका हूँ.
(२१)
नालिज पाने को कॉलेज में पढ़े हुये हैं,
रहन- सहन के शाही खर्चे बढ़े हुये हैं.
किसी झोपड़ी में जाने को तो जी चाहता है,
मगर क्या करें यार ऊँट पर चढ़े हुये हैं.
(२२)
ऐसा जग में कौन कि जिसमें कुछ भी नहीं बुराई,
क्या दृष्टि दोष दर्शन को ही विधि ने आँख बनाई.
हम निकलें तो अच्छाई की ही तलाश में निकलें,
दाना चुगो चलें व्यर्थ क्यों कूड़ा- करकट निकले .
(२३)
यह मत सोचो कि कष्ट अनन्त हुआ करता है,
विपदाओं का भी तो अंत हुआ करता है.
सुख ही दुःख का उच्चाधिकारी होगा,
पतझड़ के ही बाद बसन्त हुआ करता है..
(२४)
अंगरक्षा के लिये ऐसा अंगरखा भी सियो ,
अंत में जिसको पहन , अमरत्व का आसन पियो.
अर्थ कहने का यही है , मृत्यु का विषकील दो,
संगनी उसको बनाओ किन्तु मर कर भी जियो.
(२५)
तीव्र – तर नोकें लिये डाल में उगे हैं शूल ,
जिनमे कि नाम - मात्र की भी नरमी नही.
जड़ता के चूर्ण सी जड़ों के पास धूल पड़ी,
जिनमें कहीं भी अणु - मात्र की नमी नहीं.
(२८)
इति के इच्छुक होकर , मत तुम अथ में बैठो,
मंजिल पाने के लिये न पथ में बैठो.
सारथि बन , केशव निश्चित आयेगें ,
तुम अर्जुन बन कर रथ में बैठो.
(२९)
पाँच के पच्चानवे मोती लपेटे बाग में ,
पाँच दाने ही पड़े पच्चानवे के भाग में.
क्या अचम्भा बाँट की असमानता यों देखकर,
आज का कवि आग की फाग गाये राग में.
(३०)
जिसने बाँधा बाँध, आंसुओं की घाटी का,
जिसने किया समर्थन, श्रम की परिपाटी का.
वह नरकुल की कलम कल्पतरु बनकर फूले,
जिसने पहले पहल गीत गाया माटी का..