Hindi Literature
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CHANDER

राग देवगंधार

मेरौ गोपाल तनक, सौ, कहा करि जानै दधि की चोरी ।
हाथ नचावत आवति ग्वारिनि, जीभ करै किन थोरी ॥
कब सीकैं चढ़ि माखन खायौ, कब दधि-मटुकी फोरी ।
अँगुरी करि कबहूँ नहिं चाखत, घरहीं भरी कमोरी ॥
इतनी सुनत घोष की नारी, रहसि चली मुख मोरी ।
सूरदास जसुदा कौ नंदन, जो कछु करै सो थोरी ॥

भावार्थ :-- मेरा नन्हा-सा गोपाल दही की चोरी करना क्या जाने । अरी ग्वालिन ! तू हाथ नचाती हुई आती है, अपनी जीभ को क्यों नहीं चलाती? इसने कब तेरे छींके चढ़कर मक्खन खाया और कब दही का मटका फोड़ा? घर पर ही कमोरी भरी रहती है, कभी यह अँगुली डालकर चखता तक नहीं है । सूरदास जी कहते हैं - इतनी फटकार सुनकर व्रज की ग्वालिन चुपचाप मुँह मोड़कर (निराश होकर) यह कहती हुई चली गयी कि यशोदा का लाड़िला जो कुछ करे, वही थोड़ा है ।

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