Hindi Literature
Advertisement
http://www.kavitakosh.orgKkmsgchng
































CHANDER

पत्ते ऊंघ रहे हैं

और समय खेत की मेंढ़ पर

पेड़ के पास चुपचाप खड़ा है

जब कि उसकी चेतना पर

बया के संख्यातीत

घोंसले झूल रहे हैं

फिर भी

'पटवार घर' तक आए

वसन्त को 'राम-राम'


मिट्ठन, गूगन, रामदिया

दुलीचंद, झीमर और पल्टू मियाँ

एक की दिशा में

करोड़ों नाम हैं

जहाँ आज भी नहीं घूमती पृथ्वी

चाक पर मिट्टी और

मेहनत के हाथ घूमते हैं


गोबर की गंध में

दूर-दूर तक

न दस्तख़्त हैं न दिनांक

आकाश के नीले रंग पर मन

उपले की तरह पथा हुआ है

लेकिन ठण्डी कश-म-कश है

जिसमें लोग

गाँव सभा के साथ

कचहरी में लड़ रहे हैं


बादल नहीं बरसते जहाँ

'राम जी मूतते हैं'

किन्तु आजकल ओले पड़ रहे हैं

सपनों में अधिकतर

रोटियाँ आ रही हैं

नींद और ज़मीन के बीच

बिस्तर जैसा

कोई विषय नहीं है

बच्चे पढ़ रहे हैं

लिखत-पढ़त में बार-बार

अंगूठे के नीचे आते हैं--साहित्य

समाज और सरकार

जहाँ शहर के प्राण पीछे छूट जाते हैं

वहाँ यह भाषा नहीं

तेज़ छटपटाहट है

संवाद के सिलसिले में ।

Advertisement