CHANDER
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,
- जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;
- जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
- चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;
- चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
- ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;
- ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
- बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का
- बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वाजधारी या कि
- वह जो अनीति-भाल पै गे पाँव चलता?
- वह जो अनीति-भाल पै गे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोशणो के भीम शैल से या
- वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?
- वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?
वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या
- वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?
- वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !
- या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
- या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
- पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।
- पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।
शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
- युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;
- युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,
- ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;
- ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
- ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।
- ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।
- भूल रहे हो धर्मराज, तुम
- अभी हिंस्र भूतल है,
- खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
- खड़ा चतुर्दिक छल है।
- भूल रहे हो धर्मराज, तुम
मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।
- जियें मनुज किस भाँति परस्पर
- हो कर भाई-भाई
- कैसे रुके प्रदाह क्रोध का,
- कैसे रुके लड़ाई।
- जियें मनुज किस भाँति परस्पर
पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।
- बहे प्रेम की धार, मनुज को
- वह अनवरत भिगोये,
- एक दूसरे के उर में नर
- बीज प्रेम के बोये।
- बहे प्रेम की धार, मनुज को
किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।
- भूले-भटके ही पृथ्वी पर
- वह आदर्श उतरता,
- किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
- ही स्वरूप है धरता।
- भूले-भटके ही पृथ्वी पर
किन्तु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के;
- घृणा, कलह, विद्वेष, विविध
- तापों से आकुल हो कर,
- हो जाता उड्डीन एक-दो
- का ही हृदय भिगो कर।
- घृणा, कलह, विद्वेष, विविध